Pratidin Ek Kavita

इतना मत दूर रहो गन्ध कहीं खो जाए | गिरिजाकुमार माथुर

इतना मत दूर रहो
गन्ध कहीं खो जाए
आने दो आँच
रोशनी न मन्द हो जाए

देखा तुमको मैंने कितने जन्मों के बाद
चम्पे की बदली सी धूप-छाँह आसपास
घूम-सी गई दुनिया यह भी न रहा याद
बह गया है वक़्त लिए मेरे सारे पलाश

ले लो ये शब्द
गीत भी कहीं न सो जाए
आने दो आँच
रोशनी न मन्द हो जाए

उत्सव से तन पर सजा ललचाती मेहराबें
खींच लीं मिठास पर क्यों शीशे की दीवारें
टकराकर डूब गईं इच्छाओं की नावें
लौट-लौट आई हैं मेरी सब झनकारें

नेह फूल नाज़ुक 
न खिलना बन्द हो जाए
आने दो आँच
रोशनी न मन्द हो जाए.

क्या कुछ कमी थी मेरे भरपूर दान में
या कुछ तुम्हारी नज़र चूकी पहचान में
या सब कुछ लीला थी तुम्हारे अनुमान में
या मैंने भूल की तुम्हारी मुस्कान में

खोलो देह-बन्ध
मन समाधि-सिन्धु हो जाए
आने दो आँच
रोशनी न मन्द हो जाए

इतना मत दूर रहो
गन्ध कहीं खो जाए

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

इतना मत दूर रहो गन्ध कहीं खो जाए | गिरिजाकुमार माथुर

इतना मत दूर रहो
गन्ध कहीं खो जाए
आने दो आँच
रोशनी न मन्द हो जाए

देखा तुमको मैंने कितने जन्मों के बाद
चम्पे की बदली सी धूप-छाँह आसपास
घूम-सी गई दुनिया यह भी न रहा याद
बह गया है वक़्त लिए मेरे सारे पलाश

ले लो ये शब्द
गीत भी कहीं न सो जाए
आने दो आँच
रोशनी न मन्द हो जाए

उत्सव से तन पर सजा ललचाती मेहराबें
खींच लीं मिठास पर क्यों शीशे की दीवारें
टकराकर डूब गईं इच्छाओं की नावें
लौट-लौट आई हैं मेरी सब झनकारें

नेह फूल नाज़ुक
न खिलना बन्द हो जाए
आने दो आँच
रोशनी न मन्द हो जाए.

क्या कुछ कमी थी मेरे भरपूर दान में
या कुछ तुम्हारी नज़र चूकी पहचान में
या सब कुछ लीला थी तुम्हारे अनुमान में
या मैंने भूल की तुम्हारी मुस्कान में

खोलो देह-बन्ध
मन समाधि-सिन्धु हो जाए
आने दो आँच
रोशनी न मन्द हो जाए

इतना मत दूर रहो
गन्ध कहीं खो जाए