Nayidhara Ekal

नई धारा एकल के इस एपिसोड में देखिए मशहूर अभिनेता मनोज पाहवा द्वारा मोहन राकेश के नाटक, 'आधे-अधूरे' में से एक अंश। 

नई धारा एकल श्रृंखला में अभिनय जगत के सितारे, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों में से अंश प्रस्तुत करेंगे और साथ ही साझा करेंगे उन नाटकों से जुड़ी अपनी व्यक्तिगत यादें।

दिनकर की कृति ‘रश्मिरथी’ से मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ तक और धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधा युग’ से भीष्म साहनी के ‘हानूश’ तक - आधुनिक हिन्दी साहित्य की सबसे महत्वपूर्ण कृतियाँ, आपके पसंदीदा अदाकारों की ज़बानी।

What is Nayidhara Ekal?

साहित्य और रंगकर्म का संगम - नई धारा एकल। इस शृंखला में अभिनय जगत के प्रसिद्ध कलाकार, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों और उनमें निभाए गए अपने किरदारों को याद करते हुए प्रस्तुत करते हैं उनके संवाद और उन किरदारों से जुड़े कुछ किस्से। हमारे विशिष्ट अतिथि हैं - लवलीन मिश्रा, सीमा भार्गव पाहवा, सौरभ शुक्ला, राजेंद्र गुप्ता, वीरेंद्र सक्सेना, गोविंद नामदेव, मनोज पाहवा, विपिन शर्मा, हिमानी शिवपुरी और ज़ाकिर हुसैन।

नमस्ते, मैं अमिताभ श्रीवास्तव हूँ। और मैं स्वागत करता हूँ आप सबका हमारे इस ख़ास कार्यक्रम में जिसका नाम है–‘नई धारा एकल’। इस कार्यक्रम में हम हर बार किसी प्रसिद्ध अभिनेता या अभिनेत्री को सुनते हैं, उसकी पसंद की रचना का एक अंश।
आज के हमारे कलाकार हैं श्री मनोज पाहवा। टेलीविजन सिनेमा के मँझे हुए अभिनेता मनोज पाहवा ने अपने करियर की शुरुआत रंगमंच से की थी सन् 80 के दशक में दिल्ली में। उस वक्त इन्होंने रंजीत कपूर, देवेन्द्र राज अंकुर, राजेन्द्र गुप्ता, विनय सक्सेना जैसे निर्देशकों के साथ उनके नाटकों में काम किया, अभिनय किया। उसके बाद ये मुम्बई आ गए थे। कई साल ये टेलीविजन और सिनेमा में बिजी रहे, लेकिन उसके बाद इन्होंने अपने रंगमंच की दूसरी पारी की शुरुआत की नसीरुद्दीन शाह जी के साथ–उनके नाटक ‘कमबख्त बिल्कुल औरत’ में। जिसकी लेखिका थीं–इस्मत चुगताई। आज मनोज जी मोहन राकेश के चर्चित नाटक ‘आधे-अधूरे’ से उसके सूत्रधार या नरेटर ‘काले सूट वाला आदमी’ की एक स्पीच सुनाएँगे। मध्यम वर्गीय पति-पत्नी के संबंधों पर आधारित नाटक ‘आधे-अधूरे’ को लिखा था मोहन राकेश ने 1959 में, और ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने ये नाटक ख़ासकर ओम शिवपुरी जी को ध्यान में रखकर लिखा था। क्योंकि वो चाहते थे कि जो नाटक में पाँच प्रमुख पुरुष पात्र हैं वो एक ही अभिनेता निभाए, क्योंकि नाटक में कुछ इस तरह का कथ्य है कि हर कोई व्यक्ति एक दूसरे से बहुत मिलता है, काफी समानताएँ होती हैं हम में एक दूसरे में। और इस नाटक में ये जिसका कथानक है…एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कैसे? चलिए जानते हैं मनोज पाहवा जी से–
फिर एक बार, फिर से वही शुरुआत, मैं नहीं जानता कि आप क्या समझ रहे हैं कि मैं कौन हूँ, और क्या आशा कर रहे हैं कि मैं क्या कहने जा रहा हूँ। आप शायद सोचते हों कि मैं इस नाटक में कोई एक निश्चित इकाई हूँ–अभिनेता, प्रस्तुतकर्ता, व्यवस्थापक या कुछ और; परंतु मैं अपने संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकता। उसी तरह जैसे इस नाटक के संबंध में कुछ नहीं कह सकता। क्योंकि ये नाटक भी अपने में मेरी ही तरह अनिश्चित है। अनिश्चित होने का कारण ये है कि…परंतु कारण की बात करना बेकार है। कारण तो हर चीज़ का कुछ-न-कुछ होता ही है, और ये आवश्यक नहीं कि जो कारण दिया जाए वास्तविक कारण वही हो और जब मैं अपने ही बारे में, अपने ही संबंध में निश्चित नहीं हूँ तो किसी और चीज़ के कारण-अकारण के संबंध में निश्चित कैसे हो सकता हूँ?
तो वो…मैं वास्तव में कौन हूँ? ये एक कैसा सवाल है जिसका सामना करना मैंने इधर आकर छोड़ दिया है, क्योंकि जो मैं इस मंच पर हूँ, वह यहाँ से बाहर नहीं हूँ और जो बाहर हूँ…ख़ैर, इसमें आपकी क्या दिलचस्पी हो सकती है कि मैं यहाँ से बाहर क्या हूँ? शायद अपने बारे में इतना कहना काफी होगा कि सड़क के फुटपाथ पर चलते अचानक आप जिस आदमी से टकरा जाते हैं, वो आदमी मैं हूँ। आप सिर्फ घूरकर मुझे देख लेते हैं और इसके अलावा मुझसे कोई मतलब नहीं रखते कि मैं कौन हूँ, कहाँ रहता हूँ, किस-किस से मिलता हूँ, किन-किन परिस्थितियों में जीता हूँ। और, आप मतलब नहीं रखते तो मैं भी आपसे कोई मतलब नहीं रखता, और टकराने के क्षण में आप मेरे लिए वही होते हैं, जो मैं आपके लिए होता हूँ। इसलिए इस वक्त जिस जगह पर मैं हूँ उस जगह आप भी हो सकते थे। दो टकराने वाले व्यक्ति होने के नाते आपमें और मुझमें बहुत बड़ी समानता है। और, यही समानता आपमें और उसमें, उसमें और उस दूसरे में, और उस दूसरे में और मुझमें…बहरहाल इस गणित की पहेली में कुछ नहीं रखा है। बात इतनी ही है कि विभाजित होकर मैं किसी-न-किसी अंश में आपमें से हरेक व्यक्ति को…और यही कारण है कि नाटक के बाहर हूँ या अंदर हूँ। मेरी कोई भी एक निश्चित भूमिका नहीं है।
मैंने कहा था कि ये नाटक भी मेरी ही तरह अनिश्चित है। उसका कारण भी यही है कि मैं इसमें हूँ और मेरे होने से ही इसमें सब कुछ निर्धारित या अनिर्धारित होता है–एक विशेष परिवार, उसकी विशेष परिस्थितियाँ। परिवार दूसरा होने से परिस्थितियाँ बदल जातीं, मैं वही रहता। इस परिवार की स्त्री के स्थान पर कोई दूसरी स्त्री किसी दूसरी तरह से मुझे झेलती या वो स्त्री मेरी भूमिका ले लेती और मैं उसकी भूमिका लेकर उसे झेलता। नाटक अंत तक फिर भी इतना ही अनिश्चित बना रहता और ये निर्णय करना इतना ही कठिन होता कि इसमें मुख्य भूमिका किसकी थी–मेरी, उस स्त्री की, परिस्थितियों की या तीनों के बीच में उठते कुछ सवालों की।
ह्…ह…अब हो सकता है मैं एक अनिश्चित नाटक में एक अनिश्चित पात्र होने की सफाई भर दे रहा हूँ। हो सकता है ये नाटक एक निश्चित रूप ले सकता हो–किन्हीं पात्रों को निकाल देने से, दो-एक पात्र और जोड़ देने से, कुछ भूमिकाएँ बदल देने से, कुछ पंक्तियाँ हटा देने से, कुछ पंक्तियाँ जोड़ देने से या परिस्थितियों में थोड़ा हेर-फेर कर देने से। हो सकता है आप पुन: देखने के बाद या उससे पहले कुछ सुझाव दे सकें–इस अनिश्चित पात्र से आपकी भेंट इस बीच कई बार होगी।
बहुत ही दमदार पाठ! आधे-अधूरे के जो ये पाँच कैरेक्टर्स हैं, पाँच पुरुष पात्र। उनको हर अभिनेता करना चाहता है। मनोज पाहवा ने 1985 के आसपास ये नाटक किया था और इसे डायरेक्ट किया था–सुरेश भारद्वाज जी ने। उनसे पूछा, कि भाई आपने ये नाटक किया, ये पाँचों रोल किए–कैसा रहा आपका अनुभव, कितना मजेदार और कितना चैलेंजिंग–
मैं, अगर आज देख के बताऊँ तो सच बताऊँ तो मुझे लगता है कि उस वक्त मुझे अक्ल ही नहीं थी। हाँ…हा…मतलब एक अलग किस्म के…एक…क्योंकि बीस-इक्कीस साल की उम्र थी! हाँ, ये जरूर है कि चैलेंजिंग उस अवधि में था कि…मुझे ये मालूम था कि ये रोल जो है बहुत बड़े-बड़े लोग, बड़े-बड़े एक्टर्स कर चुके हैं! तो मुझे ये पता था कि उनके आसपास भी कभी-कभी पहुँचना संभव हो पाएगा कि नहीं हो पाएगा, लेकिन हाँ, ये है कि मेरे लिए एज एन एक्टर बहुत बड़ा चैलेंज था कि मैं अगर उसका…क्योंकि ओम शिवपुरी साहब, मनोज सिंह साहब, श्याम बेनेगल, जलाल साहब…बहुत बड़े-बड़े एक्टर कर चुके थे तो मुझे ये मालूम था कि तुलना होगी और मैं तो अभी इक्कीस साल का हूँ! तो मुझे ये था उस वक्त कि अगर मैं इसका दस परसेंट भी कर पाया तो मेरे लिए ये बहुत बड़ी अचीवमेंट होगी! और आज भी जब मैं दुबारा इस नाटक को पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि इसको तो बाबा…अब करना चाहिए। बहुत कुछ है इसके अंदर। उस वक्त जितनी उम्र थी, जितनी समझ थी उसके हिसाब से हमने अपना पूरा अफर्ड डाल दिया, तब लगता है कि हाँ, अब करें तो इसके अंदर…इसको शायद ज्यादा हम जस्टिफाई कर पाएँगे या ज्यादा न्याय कर पाएँगे इन कैरेक्टर्स को, या जो लिखा है उन लोगों के सामने…।
तो ये थी हमारी आज की पेशकश! इस कार्यक्रम की अगली कड़ी में हमलोग मिलेंगे एक और मँझे हुए अभिनेता, लेखक और निर्देशक श्री सौरभ शुक्ला जी से। आपलोगों से प्रार्थना है कि आपलोग ‘नई धारा’ के यूट्यूब चैनल को सब्स्क्राइब करें और प्लीज फॉलो करें–हमारे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को।
अच्छा, नमस्कार!